Monday 14 July 2014

दहेज-प्रथा.. (इस मुद्दे पे सिर्फ प्रश्नचिह्न लगा रहता है)?????



दहेज-प्रथा..

कहा जाता हैं जो की एक सामाजिक बुराई हैं, अक्सर लडकों वालों की तरफ़ से इसकी माँग की जाती हैं। लेकिन तब क्या होता हैं जब एक लडका एक अच्छी शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छें जगह कार्यरत
होकर अपनें गाँव या शहर अपनें, या अपने रिश्तेदारों से मिलनें जाता हैं; तो लोग कैसे-कैसे प्रस्ताव लेकर  उस लडके या उसके परिवार वालों के पास जातें हैं। जिनसे लोगों को लगता हैं वो यहां अपनी यहां बेटी को ब्याह देंगे तो उनके ज़िन्दगी भर के लिए सुकून को एक जमीं मिल जाऐगी, कहनें को हो तो जाऐगा कि पढाया- लिखाया नहीं तो क्या शादी-ब्याह अच्छें घर में कर दी अब आगे की ज़िन्दगी खुशी से तो रहेगी। इसका क्या मतलब हुआ जब-तक वो आपकी बेटी आपके पास हैं आप उसे खुश नहीं रख सकते, उसके खुशी के लिए आप एक ऐसे अंजान लडके की तालाश कर रहें हैं जो बाहर कहीं कार्यरत हैं।

दहेज प्रथा का जन्म :- प्राचीन काल में राजा महाराजा तथा मध्य काल में सेठ, जमींदार  लोग अपनी बेटियों की शादी में हीरे, सोना चाँदी जमीन अधिक मात्रा में देते थे l धीरे धीरे यह  प्रथा हर जगह फैल गई, और ये बात तो हम सबको पता है की समाज जिसे भी ग्रहण कर ले वह दोष भी गुण बन जाता है । इसका एक और कारण है हमारे समाज में औरतोँ को पुरुष से कम समझना, जैसे औरते कोई काम नहीं कर सकती l जब तक ये सोच नहीं बदलेगी तब - तक ये अभिशाप खत्म नहीं होगा, जहाँ कहीं भी ये सोच बदली है वह से ये अभिशाप भी खत्म हुआ है l

 कैसा जमाना हैं आज भी ऐसे बहुत अभिभावक हैं जो अपनें बेटियों को एक अच्छी शिक्षा के लिए उतनें पैसे खर्च नहीं करतें जिनसे की उनका भविष्य संवर सके और आगे की खुशियों की बात करतें हैं। यह अनुभव जरा तीखा होगा मगर क्या करूं समाज में गरीब या मध्यम परिवार की  लड़कियों  के दर्द की जुबां ऐसी ही होती हैं जो ज़िन्दगी भर अपनी खुशियों को मारतें आई हैं क्या संभावना हैं के वो लडका उसके लिएं सही ही  होगा या फिर जो वह जो  निर्णय लेगा वो उस लड़की के लिए ठीक ही होगा। जबकि यहां तक उस लडकी की शादी उससे बिना कुछ कहे-सुनें तय कर दी गई हो या यूँ  कहुँ की थोंप दी गई हैं, तो भी कुछ गलत नहीं कह कह रहा  । बात वहीं हैं, वही पुरानी बात दहेज के लिए शादी शुदा लड़कियों को जिन्दा जला दिया जाता है,  समस्या  बहुत  हैं, इतने वर्षों  से हल ढूंढा जा रहा है पर नहीं मिल रहा, क्यों हर कोई एक-  दूसरे की तरफ देख कर जवाब मांग  रहा, पर खुद कोई जवाब देने कोई तैयार ही नहीं है, बहुत तीखा है पर यह एक कड़वा सच है की जब खुद की बेटी की शादी के लिए देहज देना होता है तो घर वाले रोते  है,  बेटी के पिता को खूब गुस्सा भी आता है, की आखिर आज कल इतना दहेज क्यों माँगा जा रहा है। कहाँ से देंगे इतने रूपये.?

बेटी की माँ कहती है की इतनी मेहनत से कमाया और सब दे दो, घर में हर कोई इस  दहेज नामी   विष से परेशान है, पर जब उसी घर में उनके बेटे की शादी हो, तो वो वही करते है जो उनकी बेटी की  शादी के समय हुआ था, अब ये लोग क्यों दहेज मांगते है इसलिए क्यों की अब ये लड़के वाले है, या इसलिए क्योंकि इन्होने भी दहेज दिया था..? विषय बहुत  सोचनीय हैं.. कभी-कभी इनका स्वरूप बदल जाता हैं लेकिन जो मुद्दा हैं वो वही उसी पुरानी सोच पे  आके ठहर जाता हैं।

भारत इंडिया में तब्दील हो गया, पर ये सोच उसी पुरानी भारत की है, भारत को अंग्रेजो से आज़ादी मिल गयी पर इस समाज को दहेज से कब आज़ादी मिलेगी कुछ पता नहीं..? , मैंने अपने दफ्तर में कुछ लोगो से उनकी बात जाननी चाही इस मुद्दे पे, किन किन लोगो क्या कहा लिख रहा है :-

करण अरोरा :-का कहना है की, दहेज-प्रथा, अब लोगो की आदत सी बन गयी है, जो समाज को धीरे धीरे खत्म कर देगा, ठीक उसी तरह जैसे सिगरेट इंसान को ख़त्म कर देता है ।

नरेंदर शर्मा :-ने कहा की इसे हटाने के लिए शहरीकरण की जरुरत है, और दोनों पक्ष को सजा दी जानी चाहिए। नरेंदर शर्मा जी आप की बात तो ठीक है, पर क्या सजा ही एक मात्र उपाय है ?

नमन टंडन:- के विचार से दहेज लेने वाले को समाज से बाहर कर देना चाहिए, नमन जी उसी समाज की बात कर रहे है जो अजीबो गरीब फरमान सुनाता रहता है खैर ये उनके व्यक्तिगत विचार थे ।

डैनी कुरियन :-को ये बड़ा पेचीदा सवाल लगता है की इसको कैसे ख़त्म किया जाए, क्या करे कुरियन जी ये सवाल ही ऐसे है की कोई जवाब सीधे देता ही नहीं है ।

बाकि लोगो की के विचार फिर कभी लिखूंगा नहीं तो इन विचरों पे भी विचार होने लगेंगे, फिर ये विचार भी एक सवाल बन जाएंगे ।

  हमेसा इस मुद्दे पे सिर्फ प्रश्नचिह्न लगा रहता है ?????????? इन सवालो के पीछे है आप की बेटी, बहन और वो समाज जिसके हम लोग ठेकेदार बन जाते  है...  कब खत्म होगा? कैसे खतम होगा, कौन खत्म करेगा ? इसकी शुरूवात कैसे की जाए? सिर्फ और सिर्फ प्रश्नचिह्न ही है, जवाब ढूढ़ लीजिए । 

आपका,
कृष्णा नन्द  राय