Monday 13 April 2015

क्या ये चार पंक्ति मोदी जी के लिये सही है...


हे भारत के मुखिया मोदी , ये ब्लॉगर बेशक प्रशशंक  तुम्हारा है
पर अपने मन के भीतर, उठते प्रश्नों से हारा है
मेरे सारे मित्र मुझे , मोदी का भक्त बताते हैं
पर मुझको परवाह नही है, बेशक हंसी उड़ाते हैं
मुझे 'संविधान' ने यही सिखाया, व्यक्ति नही पर देश बड़ा
व्यक्ति आते व्यक्ति जाते , मैं विचार के साथ खड़ा
बचपन से ही मेरे मन में ,रहा गूंजता नारा है
इसीलिए तुमको कुछ कसमें ,याद दिलाना वाजिब है
मेरी आत्मा कहती है, ये प्रश्न उठाना वाजिब है
ये सौगंध तुम्हारी थी, तुम देश नही झुकने दोगे
इस माटी को वचन दिया था, देश नही मिटने दोगे
ये सौगंध उठा कर तुमने, वंदे मातरम बोला था
जिस को सुनकर दिल्ली का, सत्ता सिंहासन डोला था
आस जगी थी किरणों की, लगता था अंधकार खो जायेगा
काश्मीर की पीड़ा का , अब समाधान हो जायेगा
जाग उठे कश्मीरी पंडित, और विस्थापित जाग उठे
जो हिंसा के मारे थे , वे सब निर्वासित जाग उठे
नई दिल्ली से जम्मु तक, सब मोदी -मोदी दिखता था
कितना था अनुकूल समय, जो कभी विरोधी
दिखता था फिर ऐसी क्या बात हुई, जो तुम विश्वास हिला बैठे
जो पाकिस्तान समर्थक हैं, तुम उनसे हाथ मिला बैठे
गद्दी पर आते ही उसने, रंग बदलना शुरू किया
पहली प्रेस वार्ता से ही, जहर उगलना शुरू  किया
जिस चुनाव को खेल जान पर, सेना ने करवाया है
उस चुनाव का सेहरा उसने, पाक के सिर बंधवाया है
संविधान की उड़ा धज्जियां,अलगावी स्वर बोल दिए
जिनमें आतंकी बंद थे , वे सब दरवाजे खोल दिए
अब बोलो क्या रहा शेष,बोलो क्या मन में ठाना है
देर अगर हो गयी समझ लो,जीवन भर पछताना है
गर भारत की धरती पर,आतंकी छोड़े जायेगें
तो लखवी के मुद्दे पर, दुनिया को क्या समझायेंगे
घाटी को दरकार नही है, नेहरू वाले खेल की
अब भी वक़्त बहुत बाकी है, अपनी भूल का सुधार करो
ये फुंसी नासूर बने ना, जल्दी से उपचार करो
जिस शिव की नगरी से  जीते,उस शिव का तुम कुछ ध्यान करो
इस मंथन से विष निकला है, आगे बढ़ कर पान करो
गर मैं हूं प्रशशंक तुम्हारा तो, अधिकार मुझे है लड़ने का
नही इरादा है कोई, अपमान तुम्हारा करने का
केवल याद दिलाना तुमको, वही पुराना नारा है
हिन्दू, इस्लाम , सिख, ईसाई इन सब धर्मो से भारत से 
हमारा है।

आपका,
कृष्णा नन्द राय

Monday 6 April 2015

जब भी अपने कमरे में लौट कर आता हूँ...


एक ब्लॉग अपने कमरे के ऊपर बहुत दिन से बोल रहा था कब लिखोगे मेरे बारे में ब्लॉग आज लिखा :-

घंटों बाहर रहने के बाद जब भी अपने कमरे में
लौट कर आता हूँ...
एक अपनेपन का अहसास होता है...
लगता है..
जैसे मेज़ कुर्सी बेचैनी से मेरा इंतज़ार कर रही हैं...
मेरी कलम मेरी ऊंगलियों में खेलने को बेताब दिखती है...
बिस्तर खुली बाहों से मुझे आराम करने का बुलावा देता है...
महसूस होता है
टीवी कह रहा है , अब उसे मेरा मनोरंजन करने
का मौका मिलेगा...
टयूब लाईट रोशनी से कमरे को
जगमगाने के लिए तैयार बटन दबाने के इंतज़ार में दिखती...
इतना इंतज़ार तो मेरा कोई भी नहीं करता...
कितनी भी देर के बाद कमरे में आऊँ...
कोई शिकवा शिकायत नहीं करता...
रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में
मेरे साथ मेरे कमरे के सिवाय...
ऐसा कही भी नहीं होता...
किसी ना किसी को कोई ना कोई
शिकायत मुझसे रहती है...
कभी कोई नाराज़ हो कर मुंह फुलाता है....
कभी सवालों की झड़ी लगाता है...
मन करता है कमरे से बाहर निकलूँ ही नहीं...
पर मजबूरी है...
नहीं चाहते हुए भी कुछ घंटो
कमरे को खामोशी से मेरे इंतजार में
छोड़ कर जाना पड़ता है...
मेरे कमरे से बेहतर मुझे कोई नहीं समझता...

तुम्हारा ,
कृष्णा नन्द राय