Monday 11 August 2014

गरीब की बेटी...

रोज़ मरती है रोज़ जीती है।
हज़ारो जाम दुख के पीती है।
ख़ुदी मे ख़ुद
सिमटती जाती है.....एक गरीब
की बेटी।
.
.घर भी रोता है दर भी रोता है।
ज़मीनो आसमान रोता है।
जब कभी मुस्कुराके चलती है........एक
गरीब की बेटी।।

जब से पैदा हुई है रोती है।
भूख मिटती नही ग़म खाती है।
दुख अपने नही बताती है........एक
गरीब की बेटी।।
.
.देखती डोलयाँ उठती हुई झरोखो से।
कब आओगे तुम कहती है ये कहारो से।
चुपके चुपके से अशक बहाती है.....एक
गरीब की बेटी।
.
फटे लिबास को सीकर के तन ढकती है।
ना तो जीती है  और
ना मरती है।
ना जाने किस लिए संवरती है .......एक
गरीब की बेटी।
.
तरसती रहती है वो एक लाल जोडे को।
कोई तो आए उस के लिए बियाहने को।
इसी उम्मीद मे
टूटती बिखरती है.......एक
गरीब की बेटी।
.
लेटती हाथो का तकया करके।
सो गयी चाँद से बतया करके।
सुबह होती नही दुख
सहती है.....एक गरीब
की बेटी।
.
हज़ारो बार रोन्दा हे हवस ने।
हजारो ठेस पहुँची है बरस मे।
कैसे कह दें के अब कुऑरी है।.......एक
गरीब की बेटी।
.
ऐसा जीना भी कैसा जीना है।
पल पल के जिसमे मरना है।
मौत आजा तुझे बुलाती है.... एक गरीब
की बेटी।
.
बहाने ढूंढती है जीने के।
सहारे ढंढती है मरने के।
देखो देखो के ऐसे जीती है......एक
गरीब की बेटी।
.
फाँसी खाए के अब ज़हर खाए।
कोई भी देख ले तो मर जाए।
अपने ज़ख्मो को जब दिखाती है.......एक
गरीब की बेटी।
.
जिसको मिलते रहे गौहर-ए-ग़म।
ज़ख्म ऐसे मिले हरे हर दम।
दुखो से चूर होके मरती है......एक गरीब
की बेटी।...........

आपका 
कृष्णा नन्द राय