Wednesday 13 November 2013

बढ़ती दूरियाँ !!!!

नित - नित बढ़ती दूरियाँ, नित दिवार - दरार !
                       सपना बन कर रह गए, अब तो घर - परिवार!
छत तो बेशक एक है, चूल्हे लेकिन चार l 
                       दारुण दिनचर्या बनी, आपस कि तकरार !
आज न वह सीता रही, रहे नहीं वह राम !
                       रिस्तों कि डुगडुगी, मचा रही है कोहराम !
बहना आई गाँव से, लेकर माँ का प्यार !
                       आँखों को देकर गई, आँसू का उपहार !!
कभी लौट कर शहर से, आना अपने गाँव !
                       बाबा ( पापा ) को बरगद समझ, माँ को शीतल छाँव !
रिस्तों में खालीपन, आँखे है उदास !
                       घर में भी अब भोगते, लोग यहाँ वनवास !!