Saturday 26 July 2014

बलात्कार इसका कोई समाधान है या नहीं ?



क्यूं परेशानियाँ, अपराधें, बकवासें सब ये लडकियाँ सुनें। क्यूं आखिर वो अबला का धब्बा अपनें सर मढ कर उसे ता-उम्र झेंलती रहीं। बदलाव लातें हैं सब..सारी पार्टियाँ..जितनी समाज़ उतनी बकवास कोई काम का नहीं निकलता। कभी बलात्कार तो कभी दंगों का शिकार क्या यहीं तक सिमट के रह गई हैं लडकियों की ज़िन्दगीयाँ। क्या इन लड़कियों की  कहानी बस इतिहास के पन्नों में सज़ानें मात्र हैं इनके  दुखों को दिखानें मात्र हैं? क्या इनकी  कोशिशें नाकामयाबियाँ की जुबाँ बोलेगीं। क्यूं ये लड़कियाँ सिर्फ दया,आत्मीयता और गंभीरता का रूप लें। क्या लडकियों के ज़िन्दगीयों के कोई मायनें नहीं होतें। क्या उन्हें लडकों की तरह खुल के जीनें का हक नहीं? सपनें जीनें का शौक नहीं? सिर्फ उलझ के रहना और बिखर के टूट जाना बस यहीं तक हैं इन  लडकियों की ज़िन्दगीयाँ।
यहाँ अगर किसी लडकी के साथ बलात्कार हो जाता हैं तो मीडिया , समाज़, रिश्तेंदार, यहां तक की अपनें भी उससे कट के रहना शुरु कर देते है और कुसूरवार उस लडकी को बनना पडता हैं और वहीं वो लडका अपनें ज़िन्दगी को बखूबी उसी ढंग से जीता हैं जिससे पहलें तक वो जीता रहा हैं। क्या कारणें हैं आखिर तर्क क्या होतें हैं? कोई कहता हैं जरूर लडकी नें भडकीलें कपडे पहनें हो और यें कोई. और नहीं.. वहीं राज़नेता होतें हैं जो ऐसे कपडों को बनानें के प्रस्ताव का समर्थन करतें, दूसरे देशो की विकाश की वकालत करते हैं और उसमें बकायदा अपना हिस्सा भी बना लेते हैं। तो कभी कोई कहता हैं लडकी नें उकसाया होगा वो लडकी जो अपनी इज़्ज़त की गुहार करतें-करतें या तो मर जाती हैं या एक सदमें में हो जाती हैंऐसी बेबाक बातें उन लोगों से अधिकतर सुननें को मिलती  हैं जिनकें घर की  बेटियों-बहुओं के ना- जानें ऐसी कितनी परेशानियाँ झेल चुकी है जो अब वो इन शर्मनाक घटनाओ  पे समाज़ को सुना के बताना चाहतें है, लेकिन  सुनने वाला कोई नहीं है ऐसे ही जितनें लोग उतनें रंग जितनें रूप उतनें बातें। भला कोई क्या कर सकता हैं इन मुश्किलातों में अक्सर लोग मुझसे यहीं पूछ्तें हैं। उनका यही कहना होता हैं की  कृष्णा  जी घर पे बैठ के लिखना और उससे मुक्ति पा लेना दोनों अलग बाते है, आप भी तो लोगो की बात सुन कर बस लिख देते हो, जैसे आपके रुह को सुकूं मिल जाएं तो आप भी हमसे कौन से कम हैंआपकों पता हैं कृष्णा जी आप एक ख्याली दुनियाँ में जीतें हैं जहां बस आप और आपके मीडिया वाले ही बोल या सुन सकतें हैं, आपनें ना जाने कैसा माहौल तैयार किया हुआ हैं की आप समाज़ से अलग होकर सोचना शुरु कर देते हैं, अब हम आपकी इस बात का क्या कहें। सच भी कहतें हैं सब लोग मैं निरूत्तर सा हो जाता हूँ कहीं ना कहीं मैं भी तो जिम्मेवार हूँ।
एक वाक्या याद रहा हैं इस संर्दंभ में वो मैं आपको सुनाता हूँ मेरे एक पडोसी   हैं जो कि इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत हैं एक दिन हम-दोनों में ऐसे ही बहस हो रहीं थीं बलात्कार के मुद्दें पर और परिणाम- तर्क ऐसे निकलें जिसे सुन के मैं खुद हैरान था। मैनें उनसे कहा था अंकल   जी ! आपका सिस्टम तो बस सो- सा गया हैं अब कुछ काम का नहीं रहा, ना जानें इतनी बलात्कारें कैसे हो जाती हैं आप लोग आल-आउट के साथ म्यूज़िक लाउड करके सोते हैं क्या? मेरे व्यंग्ता से नाराज़ होतें हुएं मेरे पडोसी अंकल जी  ने कहा किसी पे उंगली उठाना बहुत आसान हैं बेटा वजह ना भी हो तो बखेडा खडा करनें में लगता ही क्या हैं? और वैसे भी तो आप लोग आम आदमी हो आप लोग ही कुछ क्यूं नहीं कर लेते। जब काम करनें की बात आती हैं तो आप आम लोग भी एक  दूसरे की बगले झाकने लगते है  घर में  सर छुपा के बैठ जातें हैं। गंभीरता-से  मेरी बातों को लेने की जरूरत नहीं हैं। बस आप उन लोगों का रूप, हुलिया या तस्वीर ही दिखा दिजिए जिससे  हम उन दरिंदों को पकड सके। आखिर कोई तो रूप होता होगा ना आप-लोग तो सब जानतें ही होंगें इतना कुछ लिखा-पढा हैं आप मीडिया वालो  लोगों ने.. अपनी मंडली के लोगों से पूछ के बतानें का कष्ट करें। यदि आपका सुझाव कारगर हुआ तो हम आपकों सम्मानित भी करवानें की कोशिश करेंगे आखिर तो लोगों के सुझाव से ही तो ये समाज़ चल रहा हैं। कृष्णा  भाई किसी के मन को पढना बहोत मुश्किल होता हैं कब उसकी मन की अच्छी भावनाएं बदलकर एक वैसियहत का रूप ले ले कोई नहीं जानता। मन तो चंचल होता ही लेकिन जब इंद्रियाँ उनका समर्थन अपनें स्वाभिक रूप को छोडकर कहीं और चली जाएं तो उसका कोई उपाय नहीं होता।  बलात्कार अधिकतर कमजोरों के साथ होता हैं अगर कोई उतना ही सामर्थ की कोई महिला सामनें खडी हो जिसे अच्छी प्रशिक्षण प्राप्त हो तो इससे खुद को बचाया जा सकता हैं। हांलाकि इससे यह बंद नहीं पर कम जरूर हो जाऐगा। तब यह बलात्कार जो आम खबरों की तस्वीर लिए आप लोगो के   अखबार के पन्नों पे किसी अबला लडकी की कहानी को नहीं उसकी बहादुरी को प्रदर्शित करेगा। जब तक लोगो की सोच - समझ  नहीं बदलेगी, तब तक ये कोर्ट, कानून, पुलिस कुछ नहीं कर पाएंगे l 
 बात भी काफी सही थी  सारें तर्क लाजबाव थें आखिर कोई समाज़ इतना सब कुछ जानतें हुएं कैसे अपनें एक के किए पे शर्मिन्दगीं को महसूस करता हैं। यहां और भी ना जानें ऐसे कितने उपाय हैं जिनका विश्लेषण नहीं किया गया हैं जैसे यौन शिक्षा, प्रशासन और समाज़ की बढती जिम्मेदारियों वाली पार्टियां इत्यादि।
 अगर जब कहीं उजाला नहीं हैं तब कहीं अंधेरें की अस्तित्व हैं, यदि कहीं ज़िन्दगी नहीं हैं तो मौत का अस्तित्व हैं, वैसे ही अगर आप चाहतें हैं बलात्कार का अस्तित्व ना हो तो आपको जागरूक बनना होगा और यदि आप जागरूक होतें हैं तो हज़ार हल आपकें सामनें नज़रें झुकाएं शर्मिन्दगीं से खडें मिलेंगे। बस इतना ही कुछ कहना चाहता था, हमे खुद जागरूक बनना पड़ेगा, लड़कियों को उनकी वही पुरानी इज़त देनी पड़ेगी जो हम पुराने भारत में देते थे, "देवी का रूप"


लेख मेरा बोरिंग होगा पर ये मुद्दा रोज़ नए दर्द सुना रहा है, कब तक ये दर्द सुनोगे ? कोई हल क्यों नहीं हम निकल पाते, इसलिए क्योकि हम अखबार में लिखे दर्द को सिर्फ पढ़ के रख देते है ? कही आप के अपनों का नाम उस अखबार के पन्नो में जाए इससे पहले सावधान हो जाइए कही देर हो जाए

आपका,
कृष्णा नन्द राय